9b45ec62875741f6af1713a0dcce3009 Indian History: reveal the Past: अब्दुल गफ्फार खान

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शनिवार, 23 नवंबर 2024

अब्दुल गफ्फार खान


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प्रस्तावना 

प्रस्तुत लेख में हम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा क्रांतिकारी नेता अब्दुल गफ्फार खान के बारे में चर्चा करेंगे जिन्हे हम बादशाह खान,सिमांत गांधी नाम से भी जानते है। खान साहब ने 1920 में खुदाई खिदमतगार संगठन कि स्थापना की,जिसे हम लाल कुर्ती संगठन के नाम से भी जानते है।इस संगठन ने स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्वपुर्ण भूमिका निभाई थी।खान साहब 1947 में आज़ादी के समय भारत-पाकिस्तान बंटवारे के सख्त खिलाफ थे वे नही चाहते थे कि देश का बंटवारा हो। मगर उनके संगठन तथा उनकी आवाज़ के दबा दिया गया।1930 में महात्मा गांधी द्वारा दाण्डी मार्च निकालने पर खान साहब ने पेशावर में गांधी जी के समर्थन में धर्ना प्रदर्शन का आयोजन किया था जिसके कारण वश उन्हे जेल जाना पड़ा। आज़ादी कि लड़ाई में उन्हे कई बार जेल यात्रा करनी पड़ी।अपने जीवन के लगभग 35 वर्ष जेल में बिताये।वे पहले गैर भारतीय नागारिक थे जिन्हे भारत रत्न से नवाज़ा गया था। इसके आलावा उन्हे सर्वोच्च नागरिक सम्मान तथा जवाहर लाल नेहरु अंतरर्राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानीत किया गया है।उनका लक्ष्य भारत को धर्म निरपेक्ष तथा अविभाजित रुप में देखने का था।.

जीवन परिचय

खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म पेशावर 6 जनवरी 1890 में हुआ था। उनके पिता ने उनकी प्रारम्भीक शिक्षा कइ विवाद के बावजुद मरशिनरी स्कूल से करवायी।.मात्र 20 साल की उम्र में उन्होंने अपने ग्रह जनपद में एक स्कूल की स्थापना की। जो कुछ महीनो में ही तेजी से तरक्की करने लगा।अतः ब्रिटीश सरकार ने इनकी बढ़ती तरक्की को देखते हुए,इनके स्कूल को प्रतिबंधिती एवं बंद 2करवा दिया। खान साहब को समझ आया अंग्रेज़ जानते है कि अगर भारत के लोग शिक्षीत हुए तो वे अपने हक के प्रति आवाज़ उठायेंगे अतः हमें अपना शासन चलाने के लिए इनका अशिक्षीत रहना ज़रुरी है।.अगले तीन वर्षों तक खान साहब ने अपनी कोम के लोग को जागरुक करने का प्रयास किया। 1902 में इन्होंने खुदाई खिदमतगार संगठन कि स्थापना कि,इनके विचारों से प्रभावित होकर पुस्तुनों ने बादशाह खान के नाम से सम्मानित किया।.

1930 के दाण्ड़ी मार्च समर्थन

16 मार्च 1930 मेंं जब महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ने के लिए दाण्ड़ी मार्च किया तब खान साहब ने पेशावर में महात्मा गांधी का समर्थन करने के लिए,अपने संगठन के लोगों के साथ सड़कों पर उतर आये। अपने भाषण के दौरान खान साहब ने अंग्रेजों का कड़ा विरोध किया। जिसके चलते 23 अप्रैल 1930 को अंग्रेज सरकार कि अलोचना करने के जुर्म में उन्हें गिरफ्तार कर लिया।.परिणास्वरुप इनके सहयोगी और खुदाई खिदमतगार संगठन के लोग सड़को पर उतर आये। बाज़ारो तथा शहरो को परदर्शन कारीयों द्वारा बंद कर दिया गया लोग खान साहब को रिहा कराना चाहते थे मगर अंग्रेजो ने खान साहब को छोड़ने कि बजाय उन पर गोली चलाने के आदेश दे दिया।.

जलियांवाले बाग हत्याकांड़ का दौहराव

यह घटना पेशावर के किस्सा छावनी की है होता यों है कि,बाज़ार में खान साहब के संगठन के तथा उनके चाहने वालों ने चक्का जाम किया। परदर्शन कारीयों की मांग थी खान साहब को रिहा किया जाये। मगर बदले में अंग्रेज़ सरकार ने दो बख्तर बंद गाड़ीयां किस्सा छावनी बाज़ार में भेजी तथा उन्हेंं इस निहत्थी भीड़ पर गोलीयां चलाने का अदेश दिया।.जनता को पता नही था कि पेशावार के इस बाज़ार में जलीयांवाले बाग हत्याकांड़ को दौहराया जायेगा।.गढ़वाल राईफल के दो पालाटून सिपाही निहत्थी भींड़ पर गोलियां तान कर खड़े हो गये मगर इन दोनों प्लाटून के मेजर हवलदार मेजर जन्द्र सिंह गढ़वाली ने अदेश देने से मना कर दिया जिसके चलते सिपाहीयों ने गोली चलाने से इन्कार कर दिया। परिणाम स्वरुप अन्य सिनीयर आंफीसर के आदेश पर सिपाहीयों को भिड़ पर गोली चलाने के लिए मजबूर किया गया।.इस घटना मे लगभग 400 लोगो कि मौत हुई  मगर अंग्रेजी सरकार ने अपने रिकार्ड़ में मात्र 20 से चालीस लोगों कि मौत को दर्ज किया।.दुसरी तरफ हवलदार मेजर चन्द्रा सिंह का कोर्ट मार्शल किया और उन्हे कड़ी सज़ा सुनाई गयी।.बताया जाता है कि इस घटना मे खुदाई खिदमतगार संगठन के लोगो कि संख्या ज्यादा थी उन्हें मौत का कोई खौफ नही था एक व्यक्ति के मरने के बाद दुसरा व्यक्ति स्वयं से बंदूक के सामने आ जाता था।.

घटना कि जांच

अंग्रेज सरकार ने इस घटना कि खुब लिपा पोती करने कि कोशिश की उन्होंने कहा कि भीड़ ने सेना पर पत्थर बाजी की थी जिसके कारण हमें गोलियां चलानी पड़ी। खान साहब इस घटना को ब्रिटीश सम्राट के समक्ष ले गये। सम्राट जार्ज 6 ने न्यायीक जांच करने के आदेश दे दिये।जिसके चलते लखनऊ के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति न्नानतुल्ला चौधरी को जांच अधिकारी नियुक्त किया गया।बिट्रीश कम्पनी की सरकार द्वार न्यायधीश को खरीदने की कोशीश की गयी।उन्हे प्रलोभन दिया गया कि अगर वे उनके पक्ष में फैसला सुनाते है तो, उन्हें सर न्यायीक लार्ड़ की उपाधि से नवाज़ा जायेगा। मगर न्यायधीश साहब ने उपाधि लेने से मना कर दिया और ब्रिटीश सेना को निर्दोषों पर गोलियां चलाने का दोषी बताया।.इस घटना के बाद जेल में रहने के कारण खान साहब ने खुदाई खिदमतगार संगठन के लोगों को मुस्लिम लीग संगठन के लोगों से मदत लेने कि सलाह दी।.मगर जब वे मुस्लिम लीग संगठन से मिलने गये तो उन्होंने उनकी मदत करने से सिधा मना कर दिया उनका कहना था कि वो अंग्रेजों को नाराज़ नही करना चाहते।क्योंकि अब्दुल गफ्फार खान साहब तथा उनका संगठन गांधी जी का समर्थन करने के साथ ही हिन्दूस्तान-पाकिस्तान बंटवारे के सख्त खिलाफ था, वहीं मुस्लीम लीग संगठन पाकिस्तान-हिन्दूस्तान बंटवारे के पक्ष में था।.

गांधी ईरवीन समझौता

1930 में महात्मा गांधी के इरवीन समझौते के बाद सभी क्रान्तीकारीयों के साथ ही खान साहब को रिहा किया गया। 1937 में पश्चिमी-उत्तरी सिमांत प्रांतीय चुनाव में प्रांतीय विधान सभा ने बहुमत हासिल किया जीसके दौरान खान साहब को मुख्य मंत्री बनाया गया।.साल 1942 में उन्हे एक बार से फिर गिरफ्तार कर लिया गया जिसके बाद 1947 में आज़ादी के बाद ही रिहा किया गया। उन्होने जेल में सिक्ख ग्रंथ गुरुग्रन्ध साहब और गीता का अध्ययन किया।.साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए उन्होंने गुजरात में जेल संस्क्रत विद्ववानों और मोलवियों कि कक्षाएं लगवायीं ताकी लोगों के मन से भेद खतम हो जाये ताकि सब एक साथ मिलकर आज़ाद देश का निर्माण करें।.इनकी खुबियों को देखते हुए,महात्मा गांधी के सचिव महादेव देसायी ने कहां थी कि खफ्फार खान अपनी खुबियों की बजह से महात्मा गांधी जी से भी आगे निकल गये।.1945 में जब आल इण्डीया मुस्लीम लीग जब बंटवारे पर अडी हुई थी तब खान साहब बंटवारे के सख्त खिलाफ थे अन्त मे जब जनमत से पाकिस्तान बंटवारे पर सहमती बन गई तब खान साहब ने कांग्रेस से कहा था कि अपने हमें भेड़ियोंं के लिए छोड़ दिया। जून 1947 में उन्होने पशतुनों समाज के लिए,पाकिस्तान से अलग देश की मांग करी,मगर उनकी मांग को पाकिस्तान सरकार द्वारा ठुकरा दिया गया। इस घटना के बाद पाकिस्तान सरकार उन्हे अपना दुश्मन समझने लगी। इसके बाद का उनका जीवन हाउस अरेस्ट मे बिता।.उन्हें उन्ही के घर में कैद कर दिया गया। 20 जनवरी 1988 में हाउस आरेस्ट के दौरान ही उनकी मौत हो गयी।.

महत्वपुर्ण किताबे 

एकनाथ ईश्वरन जी ने इनकी जीवनी Nonviolent soldier of Islam में उनकी तारीफ करते हुए लिखते है कि भारत में दो गांधी थे पहले मोहनदास कर्मचंद और दूसरे खान अब्दुल गफ्फार खान।.लेखक MACLOHAN अपनी किताब-The Frontier Gandhi;Badshah khan,A Torch of Peace में लिखते है कि दो बार शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए बादशाह खान की जिंदगी और कहानी के बारे में लोग कितना कम जानते है।98 साल के अपने पुरे जीवन काल में 35 साल उन्होंने जेल में बिताये ताकि हिन्दूस्तान को रहने के लिए एक बैहतर जगह बना सकें।.1967 उन्हे जवाहर लाल नेहरु अंतराष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1987 में इन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान पुरस्कार तथा भारत रत्न से नवाजा गया।.

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