प्रस्तावना
प्रस्तुत लेख में तराइन के युद्ध तथा इससे भारतीय राजपूतों की सत्ता के अन्त एवं तुर्क शासकों के भारत आगमन पर चर्चा करने के साथ ही उस समयकाल की महत्वपूर्ण घटनों की चर्चा करेंगे।.इसके साथ ही हम देखेंगे की भारतीय शासकों की किन गलतीयों के कारण पृथ्वीराज चौहान की हार हुई।.
महत्वपुर्ण तथ्य
12शताब्दी में गजनवी साम्राज्य के पतन के बाद गजनी की विभिन्न जनजातियों में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए आपस में लड़ रहे थे जिसमें घुरिद जनजाति के लोग सफल रहें। इस जनजाति समुह का नेतृत्व मोहम्मद गोरी तथा उसके भाई गयासुद्दीन ने किया था। इन्होंने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए भारत की तरफ अपना रुख किया।.इनके समय काल में उत्तरी भारत कमजोर राज्यों का एक संग्रह था। इस समय भारत के सबसे शक्तिशाली शासकों में गुजरात के चालुक्य,बनारस और कन्नौज के शासक जयचन्द्र थे जोकि सोलंकी वंश के वारिस थे।. इसी क्रम में दिल्ली और अजमेर के शक्तिशाली शासक पृथ्वीराज चौहान का भी नाम आता है।.
1178 में मोहम्मद गोरी ने चालुक्यो शालकों पर हमला किया ऐसा उसने इस लिए किया क्योंकि दिल्ली का सिधा मार्ग लाहौर और मुल्तान में स्थित गजनवीयों द्वारा अवरुद्ध किया गया था। इस हमले के दौरान घुरिद सेना चालुक्य सेना से हार गयी।.1186 में मुहम्मद गोरी ने लाहौर पर हमला किया जिसके परिणामस्वरुप गजनवी के अंतिम शासको को समाप्त कर वहां अपना शासन स्थापित किया। इसके बाद उसनें पृथ्वीराज चौहान के साम्राज्य पर आक्रमण करने का निर्णय लिया।.
तराइन का प्रथम युद्ध 1191
तराइन के युद्ध को हम तरावड़ी के युद्ध के नाम से भी जानते है यह युद्ध 1191 से 1192 के बिच लड़े जाने वाले युद्ध कि एक श्रंखला थी जिसने पूरे भारत में मुस्लिम नियंत्रण के लिए रास्ता खोल दिया।. यह युद्ध गजनी की घुरिद नामक तुर्क जनजाति के सरदार मोहम्मद गौरी जिसे हम मुईजुद्दीन मुहम्मद बिन साग के नाम से जानते को साथ भारतीय राजपूत एवं चहमान वंश के शासक पृ्थ्वीराज चौहान के बीज हुआ था।. यह युद्ध क्षेत्र वर्तमान समय में भारत के हरियाणा राज्य के करनाल जिले के थानेश्वर ओर कुरुक्षेत्र के बीच के स्थाप पर हुआ था जिसे हम तराइन के नाम से जानते है।.यह स्थान दिल्ली से 113 किलोमीटर उत्तर में उपस्थित है। इस समयकाल के दौरान पृथ्वीराज चौहान दिल्ली और अजमेर के शासक थे।.तराइन के युद्ध को हम तराओरी की लड़ाई के नाम से भी जानते है।.
तराइन के प्रथम युद्ध कि घटना
मोहम्मद गौरी ने प्रारम्भ में भारत पर मार्च करते हुये बठिंड़ा के महत्वपुर्ण किले पर अपना कब्जा कर लिया।.जिसके परिणामस्वरुप दिल्ली सेना हरकत में आ गयी।.दोनों पक्ष कि सेनाएं आमने-सामने हुई।.आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार उस समय पृथ्वीराज चौहान लगभग 50000सैनिकों के साथ तराइन के मैदान में उपस्थित थे।.युद्ध के प्रारम्भ मे गजनी शासक गोरी की सेना के धनुर्धारीयों ने राजपुत सेना पर तीरों से हमला किया। हमले कि जवाबी कार्यवाही करते हुए पृथ्वीराज चौहान तृतीय ने एक चौतरफा हमला करके जवाब दिया। जिसने घुरिदो को चौंका दिया क्योंकि वे राजपूतों के युद्ध कौशल से परिचीत नही थे।.जल्द ही मोहम्मद गौरी को एहसास हुआ कि राजपुतों की नीकटवर्ती लड़ाई होने के कारण राजपूतों ने पृथ्वीराज का अधिक पक्ष लिया था क्योंकि पृ्थ्वीराज स्वयं राजपूत थे।.
अतः जब घूरिदों को यह एहसास हुआ कि वे राजपूतों का सामना नही कर पायेंगे तब वे रणभुमि से भाग खड़े हुए।.इस बीच राजपूत सैलिकों ने शेष सैनिकों पर दबाव बनाना प्रारम्भ किया। मोहम्मद गोरी ने रैली के माध्यम से अपने समस्त सैनिकों के मनोबल बढ़ाने और हार की हताहत स्थिती से उबारने का प्रयास किया।.
इसी बिच मोहम्मद गोरी ने राजपूत सेना के सेनापति गोविन्द राय के पास आकर उन पर भाला फेंका मगर सेनापति भाले से बचते हुए गोरी पर अपना भाला फैंका जिससे मोहम्मद गोरी बच नही पाया परिणामस्वरुप वे रणभुमि में गिरने ही वाला था कि उसके सेनापति ने गोरी के घोड़े कि लगाम सम्भाल ली और उसे युद्ध क्षेत्र से दुर ले गया,इधर अपने सेना नायक के आभाव में घूरिद सेना पथ भ्रष्ट होकर इधर-उधर भागने लगी।.अतः इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की जीत हुईं।.
युद्ध के बाद का परिणाम
मोहम्मद गोरी ने अपने कमजोर पक्ष पर विचार किया उसे सदृढ़ करने का प्रयास के साथ ही अपने दूश्मन को कमजोर समझने की भूल में सूधार किया।.दुसरी तरफ भारतीय राजपूत युद्ध जीतने की खुशी में अपनी सीमाओं पर मजबूत पकड़ बनाने में असफल रहे जिसका परिणाम उन्हे तराइन के दूसरे युद्ध में देखने के मिलता है।.
तराइन का दूसरा युद्ध 1192
यह युद्ध 1192 मे तराइन के क्षेत्र में लड़ा गया था जिसे वर्तमान समय में हरियाणा के तरोड़ी नामक क्षेत्र के नाम से जाना जाता है।.इस लड़ाई को मध्ययूगीन भारत के इतिहास की एक महत्वपुर्ण लडाई के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इसके बाद ही भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई और बड़े पैमाने पर राजपुतों का विनाश हुआ।.
तराइन के दूसरे युद्ध की महत्वपुर्ण घटना
1191 मोहम्मद गोरी पृथ्वीराज से हारकर वापिस लौट गया था बताते चले कि पृथ्वीराज चौहान की पत्नी का नाम संयोगिता चौहान था और इनकी मौत फांसी देने से हुई थी और अपने पुराने सेनापति और कमांड़रो को बर्खास्त किया और अपने सेना का पुनः निर्माण किया।.जिसमें उसने अपनी हार की आग में जलते हुए सेना की गतिशीलता,अनुशासन तथा कुशल सेना नायकों का चयन बहोत सोचविचार कर किया।.इधर पृथ्वीराज अपनी जीत से प्रसन्न ने अपनी सेना में किसी प्रकार मे कोई बदलाव नही किये और न ही सेना को ओर मजबूत करने का प्रयास किया।.बल्कि इसके स्थान पर अपने पड़ोसी राज्यों को एक बड़ी सेना के लिये आंमत्रण भेजा।.अतः मोहम्मद गोरी ने 52000 घुड़सवार सेना के साथ मार्च किया जो कि उसकी सम्पूर्ण सेना का आधा हिस्सा थी।.अपने 52000 सिपाहियों के साथ एक बार फिर से भठिंड़ा पर अपना कब्जा कर लिया।.
जिसे जीते राजपूत सेना को अभी मात्र एक हि महीना हुआ था।. इसके बाद मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को संधि करने का प्रस्ताव भेजा जिसे पृथ्वीराज ने ठुकरा दिया। क्योकि यह संधि राजपूतों को बिना युद्ध के गुलाम बनाने के एक तरीका था।. दूसरी तरफ पृथ्वीराज ने भी मोहम्मद गोरी को वापिस गजनी लौट जाने के लिये तराइन के खेतो से अपना सदेंश भेजा जिसे गोरी द्वारा ठुकरा दिया गया।.अतः मौका देखकर घूरिदों ने राजपूत शिविर पर हमला किया जहां वे ड़ेरा डाले हुये थे जिसके परिणाम स्वरुप राजपूतों ने घूरिदों के शूरुआती हमले से उबरने के लिये समय लिया उनके सैन्य दर्शन ने रात्रि युद्ध पर रोक लगा दी थी।लेकिन राजपुतों ने घुड़सवार सेना को हरा दिया जो उनके पास आ रही थी।.
मोहम्मद गोरी की युद्ध रणनीति
चूंकि राजपूत सेना अच्छी तरह से अनुशासित रुप में थी जिसके कारण घूरीद सेना उन पर सिधा हमला नही करना चाहती थी क्योंकि वह जानते थे कि वे सामने स ेहमला करने पर नही जीत पायेंगे। दुश्मन पर आगे पिछे से हमला करने के लिए घुरिद सेना ने अपनी घुड़सवार सेना को पांच और चार इकाइयों के प्रतिशत में विभाजित किया गया था।मोहम्मद गोरी ने 1000 के आंकड़े को ध्यान में रखते हुये सेना को 4भागों में विभाजित किया था। जिसने सम्पुर्ण राजपुत सेना को चारों ओर से घेर लिया। मोहम्मद गोरी ने राजपूत सेना को थकाने के लिये अपनी सेना को धिरे -धिरे पिछे हटने का आदेश दिया और जब वे थक गये तब गोरी ने उन पर हमला करने का आदेश दिया जिसके परिणामस्वरुप मोहम्मद गोरी की जीत हुई।.
तराइन के दूसरे युद्ध का परिणाम
यह युद्ध राजपूतों के लिए विनाशकारी परिणाम लेकर आया जिससे उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा पर गंभीर झटका लगा।.इसी समय काल के दोरान मोहम्मद गोरी के सेनानायक कुतुब-द्दीन-एबक ने 1193 में अजमेर पर अधिकार कर लिया और उत्तरी तथा मध्य भारतीय क्षेत्र तुर्की अथवा घूरीद शासन की स्थापना की।.पृ्थ्वीराज का पुत्र रणथंभौर चले गये और वहां चौहान वंश कि स्थापना की।.1194 में चन्दावर की लड़ाई में कुतुबद्दीन-ऐबक ने जयचन्द्र को हराया।.
तराइन का तीसरी युद्ध 1215
इस युद्ध मे इल्तुमिश ने तराइन के तीसरे युद्ध में गजनी के शासक यलौद को पराजित कर उसकी हत्या कर दीं। जिसके परिणामस्वरुप दिल्ली सल्तनत का संपर्क गजनी से टूट गया।.अतः दिल्ली सल्तनत मध्यएशिया की राजनीति से स्वतंत्र पूर्णतया एक भारतीय राज्य बना।.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें