9b45ec62875741f6af1713a0dcce3009 Indian History: reveal the Past: मैत्रायणी संहिता (यजुर्वेद)

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गुरुवार, 9 मई 2024

मैत्रायणी संहिता (यजुर्वेद)


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प्रस्तावना

प्रस्तुत लेख में हम यजुर्वेद के भाग मैत्रायणी संहिता के बारे में चर्चा करेंगे तथा वर्णित साक्षयों का प्रमाणिकरण करेंगे।.इसके साथ ही मैत्रायणी में वर्णित यज्ञों उनके प्रयोजन एवं यज्ञों के प्रकार के बारे में वर्णन करेंगे। तथा विद्वानों द्वारा दियें गये उनके मतो एवं अन्य ग्रंथों में मैत्रायणी संहिता में वर्णित यज्ञ अनुष्ठानों से सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करेंगे।.प्रस्तुत लेख में मैत्रायणी संहिता में उल्लेखीत 8 खण्ड़ो में चार खण्डो का वर्णन किया गया है जिनमें से 1.मैत्रयणी संहिता का परिचय 2.यज्ञों की सामान्य प्रष्ठ भूमि 3.यज्ञ प्रक्रिया का कर्म  निर्धारण 4.यज्ञों का प्रयोजन का वर्णन किया गया हैं।

परिचय

मैत्रायणी संहिता में 14 यज्ञों का व्याख्यान पूर्वक प्रतिपादन किया गया है।अध्यनकर्ताओं द्वारा बताया जाता है कि इस संहिता में अश्वमेघ,सौत्रामणी,और प्रवण्यर्य यज्ञों के सिर्फ मंत्र ही है ब्राह्मण भाग का आभाव है। जिसके परिणामस्वरुप याचकों को तैत्तिरीय संहिता,शतपथ-ब्राह्मण एवं मानवश्रीत सूत्र पर निर्भर रहना पड़ता है। इसके साथ हि दुसरी अधिक जटिल समस्या यज्ञ-विधियों के वर्णन के समय आती है।  इसके नवीन संस्करण को पाठकों को समझने के लिए सबसे बड़ा श्रेय डाॅ0 सुधीर कुमार को एवं राजस्थान विश्वविद्यालय के पुस्ताकालय विभाग के अधिकारियों को जाता है।.इनके अनुसार मैत्रायणी संहिता के कुल 8 भाग है। जिनमें से चार का वर्णन उपर किया जा चुका है और चार का वर्णन इस प्रकार है 5.यज्ञों कि विधियां 6.यज्ञों कि तुलनात्मक स्थिती 7.यज्ञों के मंत्र विनियोग के स्वरुप 8. पर्याप्त -विवेचन।.

खण्ड 1 संहिता का परिचय

बताया जाता है कि यजुर्वेद की कुल 101 शाखांए है जिनमें से 86 ब्रह्मसम्प्रदाय के अन्तर्गत कृष्णयजुर्वेद की है। 15 आदित्य सम्प्रदाय के अन्तर्गत शुक्ल यजुर्वेद की है। मैत्रयणी संहिता को कृष्ण यजुर्वेद का हिस्सा माना गया है।.बताया गया है कि कृष्ण यजुर्वेद कि समस्त 86 शाखाओं का उदगम महार्षि वेदव्यास के शिष्य एवं आचार्य वैश्याम्पन के पर शिष्य परम्परा से निकली है। इन सबकों ही चरक कहां गया है। चरक शिष्यों चरक क्यों कहा जाता है इस में आख्यान देते हुए वायु,विष्णु,ब्राह्मण और भागवत पुराण कहते है कि जिन शिष्यों ने गुरु वैशाम्पयान के ब्रह्म-हत्या के पाप का प्रायश्चित करने के लिए व्रत का आचरण किया था वे चरक कहलाते है।.

एक अन्य उदाहरण में यह परिभाषित किया गया है कि गुरु वैशाम्पयन को सब चरक भी कहते थे अतः उनके शिष्यों का नाम भी चरक पड़ गया।.बताते चले कि चरक कहलाने वाले इन शिष्यों कि संख्या 9 थी।. इनके नामों का उल्लेख ब्राह्मण पुराण में मिलता है।.1.इतिहासकार श्री भगतद्त्त के अनुसार- इन्होने अपने प्रमाणों और उध्दरणों द्वारा यह प्रमाणित किया है कि याज्ञ्यावल्क्य और वैशम्पायन आदि महाभारत कालीन है।अतः इनके मतानुसार समस्त ब्राह्मण ग्रंथो के लेखन प्रक्रिया अथवा संकलन इसी काल में हुआ था। अतः इस प्रकार इन सभी ऋषियों के शिष्यों और परशिष्यों द्वारा रचित मैत्रायणा संहिता का समय काल यही होना चाहिए।.इन्होने मैत्रायणी संहिता का समय विक्रम संवत 3200 ईसा पूर्व का माना है।.2.डाॅ कीथ के अनुसार-मैत्रयणी संहिता का समय काल 600 ई0 पू0 का मानते है। वे मैत्रायणी संहिता का प्रारम्भिक रुप तैत्तिरीय संहिता को मानते है।.3.श्री मण्डन मिश्र के अनुसार- इनके अनुसार मैत्रायणाी संहिता तैत्तिरीय संहिता का प्राचीन रुप है।.

खण्ड 2.यज्ञों कि सामान्य पृष्ठ भूमि

भारतीय हिंन्दू संस्कृति में यज्ञों का एक महत्वपुर्ण स्थान रहा है।.इन्हे सहिंता साक्षात् ऐश्वर्यरुप, पापों,रोगों,आदि का शोधक-नाशक माना जाता है तथा यज्ञों को परलोक में स्वर्गप्राप्ती का साधन या अमरत्व का प्रापक माना गया है। अतः यह एक श्रेष्ठतम कर्म है।.अन्य प्रमाणों से पता चलता है कि यज्ञों का स्वरुप ऋग्वैदिक काल में ही पर्याप्त विकसीत हो गया था।.यज्ञों का वर्गीकरण 2 मूल रुपों मे किया गया है। 1.प्राकृतिक यज्ञ-इसमें यज्ञ हमेशा प्रकृतिक मूल रुप में वर्णित होता है।2.विकृति यज्ञ- इनमें विकार अर्थात अन्य यज्ञों के विशिष्ट परिवर्तित रुप ही निर्दिष्ट किये जाते है।.

स्वतंत्र मुख्य यज्ञों कि दृष्टि 

यह कुल संख्या में 16 है
ये सभि हर्वयज्ञ के अन्तरगत आते है 1.अग्निहोत्र यज्ञ 2.शुनासीरीय 3.दर्श 4.पूर्णमास 5.चतुर्मास्यों के वैश्वदेव,6.वरुपप्रवास,7.साकमेघ 8.शुनासिरीय, सौमयंग के अन्तरगत 9.अग्निष्टोम 10.राजसूय 11.वाजपेय 12.अश्वमेघ य इष्टरायाग अग्निचिति 13.पितृयज्ञ 14.पशुयज्ञ 15.प्रवग्र्य 16 सौत्रामणी यज्ञ आदि।.

भाग 3 यज्ञ प्रक्रिया का कर्म निर्धारण 

मैत्रायणी संहिता की यज्ञ प्रक्रिया को जानने के मुख्य 2 स्त्रोत है। पहला ब्राह्मण संहिता दूसरा मानव श्रौत सूत्र है। मुख्यतः इन्ही के आधार पर विवरण प्रस्तुत किया गया है।.

मंत्र

यज्ञ का सर्वतत्व मंत्र माना गया है मंत्रों के आधार पर ही प्रत्येक क्रिया का ताना-बाना बुना गया है।.मंत्रों के प्रयोंग से ही मानवीय क्रिया को भी याज्ञिकअत देवताओं के अनुरुप बनाया जाता है।. किन्तु केवल मन्त्र संकलन के आधार पर यज्ञ के कर्म-काण्डिक स्वरुप को जान पाना असम्भव है। मन्त्रों की याज्ञिक विधि ब्राह्मण और सूत्र ग्रंथो से स्पष्ट होती है। ब्राह्मण सूत्र रहित मंत्रो का याज्ञिक स्वरुप बुद्धिकर्म से नियुक्त आत्मा के सदृश अव्यक्त ही रहता है। 

अतः ब्राह्मण और सूत्र का आश्रय अनिवार्य बताया गया है। संहिता के अनुसार बताया जाता है कि मंत्रो के अनुसार यज्ञविधि विवाद का विषय हो सकता है। मगर यह बात निर्विवाद है कि ब्राह्मणों का जन्म मन्त्रों के विनियोग की सार्थकता,यज्ञों की पृष्ठभूमि और यज्ञविधियों के औचित्य  को समझने के लिए हुआ है।.सुनिशिचित स्वरुप का व्याख्यान मात्र है।.किन्तु ब्राह्मण अपने इस ध्येय की पूर्ति एक ही प्रकार से नही करता है। एक पूर्वनिश्चित स्वरुप का व्याख्यान करते हुए ब्राह्मण प्रायः अनेक बातों को सामान्य और सर्वज्ञात होने के कारण छोड़ देता है,अथवा सकेंतमात्र ही देता है।

 इससे बहुधा यज्ञ व्याख्यान का स्वरुप नष्ट हो जाता है।.पाठकों को हम बताते चले कि ब्राह्मण द्वारा मंत्र का गलत उच्चारण करने अथवा अधूरा मंत्र पढ़ने से यज्ञ के आहवाहन का सही फल याचक को नही प्राप्त होता है।.अतः यज्ञ के दौरान एक उच्चतम कोटी के ब्राह्मण का चयन करें य यज्ञ के मंत्रों को एक बार स्वयं पढ़ ले और ब्राह्मण को उन मंत्रो के ज्ञान होना सुनिश्चित कर लें।.मैत्रायणी संहिता में यह भी वर्णन किया गया है कि एक समान क्रिया के मंत्रों को एक स्थान पर रखते हुये भी इसके अंशो का अलग-अलग विनियोग किया जाना सम्भव है। मैत्रायणी संहिता को पढ़ते हुए यह भी ज्ञात होता है कि यज्ञविधि में ब्राह्मण की अपेक्षा मंत्र को अधिक प्राथमिकता देनी चाहिए।.

संहिता और सूत्र

यह स्पष्ट है कि यज्ञ-स्वरुप के ज्ञान के लिए सूत्र  अनिवार्य तत्व है।.पर यह आवश्य विचारणिय है कि सूत्र की अनिवार्यता किस सिमा तक ग्राहय होनी चाहिए।.संहिताओं का तुलनात्मक अध्ययन बताता है कि सभी सम्प्रदायों मे सभी यज्ञ विधियां मान्य नही है। स्थिती और विकास के सतत् साहचर्य के कारण समय के साथ कुछ विधियां छोड़ दी जाती है और कुछ नयीं विधियां चालू हो जाती है।.

भाग 4 यज्ञों का प्रयोजन 

यह पहले ही वर्णित किया जा चूका है कि यज्ञों का हमारे शास्त्रों मे क्या महत्व है मगर इसके बाद भी हम आपकों बताते चलें कि वैदिक यज्ञों द्वारा सृष्टि की उत्पादक शक्तियों और प्रक्रियाओ को स्पष्ट करने का प्रयास किया जाता है।.यहां निम्नलिखित यज्ञों और उनके प्रयोजन का वर्णन किया गया है।.

1.अगन्याधान

इस आधान में अग्नि के तीन स्वरुपों का वर्णन किया गया है।1.आहिताग्नि 2.आहवनीय अग्नि 3.दक्षिणाअग्नि आदि।
अग्नियों को यजमानों के कार्य श्रौत,स्मार्त और गृह यज्ञ अनुष्ठित किया जाते है, मैत्रायणी संहिता में एक कहानी का यह आख्यान इस प्रकार है कि प्रजापति द्वारा प्रलयकालीन जल को सूखाने के लिए सर्वप्रथम अग्नि को उत्पन्न करने का वर्णन है।.शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ मे इन तीन अग्नीयों को प्राण,अपान,व्यान कहा गया है।.इन अग्नियों का मंथन करके देवों ने अपने प्राणों को जीवित और स्थापित किया।.तैत्तरीय ब्राह्मण में इन अग्नियों कि तुलना तीनों लोकों से कि गई है।.

2.पुनराधान

यह पुर्वतः अग्नि का भाग है,आख्यान में जिस समृद्धि के लिये अगन्याधान किया गया है,यदि वह प्राप्त नही होती है क्षीणता बढ़ती है तो उसकी समृद्धि प्राप्त करने के लिए फिर से पुनराधान करना चाहिए। इसके सम्बन्ध में यह आख्यान भी मिलता है कि देवों ने असुरों से युद्ध करते समय पूर्वस्थापित अग्नि को सूरक्षित रखते के लिए उसे फिर से अग्नि में स्थित कर दिया था।.यही अग्नि पुनराधेय है।.

3.अग्निहोत्र

मैत्रायणी संहिता में अग्निहोत्र को प्रजाओं की सृष्टि बताया है यानि इसमें प्रजा की उत्पत्ति होती है।.प्रजापति ने अग्नि मे दी 13 अहूतियों द्वारा क्रमशः सात ग्राम्य पशुओं और 6 ऋतुओं को उत्पन्न किया था।.उसी अग्नि को उसका भागदेय देकर यह होम किया जाता है।.शतपथ ब्राह्मण के अनुसार यह अनुष्ठान प्रजा को उत्पन्न करता है और विजय बनाता है।.

4.दर्शपूर्णमास

दर्शपूर्णमास का समस्त प्रयोजन केवल शतपथ ब्राह्मण में ही वर्णित किया गया है।.इसमें कहा गया है कि  आमावस और पूर्णिमा के ये दो अर्धमास प्रजापति के पूत्रों- देवों और असुरों में दाय थे,चन्द्र को पुर्ण करने वाला पक्ष देवों को मिला,और क्षीण करने वाला पक्ष असुरों को मिला।.आसुरों के भाग को प्राप्त करने कि इच्छा से देवों ने इस पर्वद्धय पर यानों का अनुष्ठान कर उसे प्राप्त किया था।.इस यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला शत्रु व असुरों कि समस्त सम्पत्ति को प्राप्त कर लेता है।.

5.चातुर्मास्यायाग

यह वर्ष के3 प्रमुख ऋतुओं में किए ये जाने वाले प्रयाग का समुह है।.1.वैश्वदेव पर्व 2.वरुणप्रघास 3.भैपज्ययज्ञ(इस यज्ञ को रोगों नाशक भी कहा जाता है।)आदि।.प्रथम से प्रजा का निर्माण हुआ।.2.वरुणघास के प्रयोग से प्रजापति ने ऐसे पक्षियों और सर्पण शील प्राणियों को बनाया जो पैदा होते ही मर जाते थे।3.भैपाज्य यज्ञ इसके माध्यम से प्रजापति ने उनके मरने का कारण जानकर दूध रूपी अन्न के निर्माण किया।.जो इस दूध के आधार पर चिरंजीवी बने।.अतः स्पष्ट हो जाता है की चतुर्मास्याग द्वारा उत्पत्ति से लेकर आमरत्व प्राप्ति की जीवन पद्धति के दिग्दर्शन करवाया गया है।.

6.अग्निशोष्टम

इस यज्ञ में अग्नि की स्तुति की जाती है।.

7.वाजपेययाग 

डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार वाज का अर्थ स्फूर्ति,वेग,शक्ति,प्राण और वीर्य है।.एक अन्य अर्थ में उन्होंने कहा की वीर्य रूपी वाज शरीर के भीतर ही पकाकर ओज में परिवर्तित विधि को वाजपेय यज्ञ कहते है।.डॉ0 कीथ के अनुसार इसका प्राचीन अर्थ बल और जीवन है।.अपने एक अन्य उदाहरण में अपने वैदिक धर्म और दर्शन में इस यज्ञ का संबंध उच्च वैभव और उच्चतम ध्येय से मानते है।.

8.राजसुयज्ञ

राजा सुयते व्यभिपिच्यते अहिमन याने इति राजसूय।.
इससे स्पष्ट हो जाता है की इस यज्ञ की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना राजा का अभिषेक होना है।. अतः इस यज्ञ का निर्विवाद प्रयोजन राज्य प्राप्ति है।.

9. अश्वमेघ यज्ञ

मैत्त्रायनी संहिता में इस यज्ञ के अनुष्ठान का समय बसन्त ऋतु बताया गया है, बसन्त ब्राह्मण ऋतु है। और ब्राह्मण बन कर ही इस यज्ञ का यजन किया जा सकता है। यद्धपि राष्ट्र को अश्वमेध कहने से इसका संबंध राजा से भी जुड़ जाता है। वैसे सूर्य के भी आशमेध कहा गया है। डॉ कीथ के अनुसार और फान नैगलिन भी यही मानते है इस यज्ञ में अश्व को सूर्य का प्रतीक माना गया है।.नैगलीन के अनुसार यह यज्ञ अश्व के रूप में समझे गए सूर्य को,इसकी यात्रा के लिए बलशाली बनाने के अभिप्राय से किया जाने वाले यज्ञ है।.

10. सौत्रामणि यज्ञ 

इसमें इंद्र के पापरूप मृत्यु से सामुक्त्या रक्षा को गई है।.एक कथा अनुसार बताया गया है की।.जब इंद्र ने त्वष्टा के पुत्र त्रिशिर्य सोमपायी के विश्वरूप को मार दिया,तो क्रोधित हो कर त्वष्टा ने इंद्र को सोम से वंचित कर दिया।.अतः इंद्र ने उसके यज्ञ का विनाश करके सारा सोम पी लिया।.अतः पित्त के रूप में सोम इंद्र के शरीर से बाहर निकलने लगा।.उसके अंगों से निसर्त ये सोम विविध पशुओं और अन्नो में परिवर्तित होने लगा। इस प्रकार इंद्र की संपूर्ण शक्ति उन जीवों और अन्न में चली गईं।.अतः इस क्षीण शक्ति इंद्र की सरस्वती और अश्वनियो ने चिकित्सा की।.

अतः रूपक और प्रतीक की भाषा में इस आख्यान का मोलभाव यह है की अत्यधिक मात्रा में पाया गया सोम शक्ति रूप में परिवर्तित होने के बदले बिना पचे ही अतीर्ण रोगों की तरह निकलकर शरीर की शक्ति को क्षीण करने लगता है। तब इस यज्ञ द्वारा शरीर की शक्ति को पुनः स्थापित करने के लिए एवं शेयर रक्षा करने के लिए इस यज्ञ का आह्वाहन किया जाता है।.

11. प्रवाग्र्य 

जब श्री यश और अन्न की इच्छा से देवता सत्र के लिए बैठे,तो उन्होंने निश्चित किया की को भी हम में से श्रम,तप,श्रद्धा,यज्ञ और आहुतियों द्वारा पहले यज्ञ की पूर्णता को प्राप्त करेगा,वही सब में श्रेष्ठ होगा।.जिसके परिणाम स्वरूप इंद्र ने पहले यज्ञ करके श्रेष्ठत्व को पा लिया। मगर श्रेष्ठत्व के इस यश को संभालने में समर्थ न ही सका।.अतः इस यज्ञ के अनुष्ठान से अपने कार्य क्षेत्र और गृह क्षेत्र में यश की प्राप्ति होती है।.इसे दो भागो में विभाजित किया गया है।.1.प्रवरण्य 2.प्रवृजंन डॉ कीथ और हिल्ले ब्रांट विद्वानों के अनुसार महावीर का पात्र सूर्य का और दूध की उष्णता सूर्यताप की शक्तिमता का प्रतीक है,और यजमान की शक्तियों का पुनर्नवीकरण करना इसका प्रयोजन है।.

12. गोनामिक 

यह अनुष्ठान कामधेनु गाय जिसमे सर्वत्र देवों का वास संपूर्ण मनोकामनाओं को पूर्ण करने की इच्छा शक्ति होती है।अतः यह आराधना एवं यज्ञ विधि कामधेनु गाय को समर्पित है।.

13.अग्निचित्तियाग

इष्टकामों का चयन करना चुनना यथा विधि संयोजन करना अग्निचित है। ज्येष्ठता के इच्छुक प्रजापति ने सर्व प्रथम इस इस अग्नि का चयन कर जेष्ठत्व प्राप्त किया था।.प्रजापति ने अग्नियों को ऋतुओं द्वारा चुना था।.पक्षी की आकृति वाली अग्नि को बसंत ऋतु से,दक्षिणापक्ष अग्नि को ग्रीष्म ऋतु से,उत्तरापक्ष को वर्षा ऋतु से,पुक्छ भाग से शरद ऋतु को,और मध्य भाग से हेमंत को चुना था।.ये ही भाग क्रमशः ब्रह्म, क्षत्र,प्रजा,पशु और आशा से भी चुने गए थे। 

अतः अग्निचयन करता इन सबको पा लेता है।.सप्तऋषियों यानी प्रजापति को इसी प्रकार परिभाषित किया है की वे विरातपूर्ष से दो नाभी के ऊपर से और दो नाभी के नीचे एवं दो पक्ष और एक प्रतिष्ठा को संयुक्त करके एक पूर्ण पुरुष का निर्माण किया है।.डॉ0 कीथ के अनुसार यह यज्ञ प्रस्तुत ब्रह्मण रचना के इस पेववर्तिविचार को कर्मकांड से उतारने का पुरोहित द्वारा किया गया एक ठोस प्रयास है। जो ऋग्वेद के पुरुष मुक्त में आदि विराट पुरुष के शरीर के विच्छेद द्वारा सृष्टि रचना का प्रक्रिया के रूप में वर्णित है। यह अग्नि वेदि ब्राह्मण का प्रतिक है और इस तरह यह ब्रह्माण्ड रचना के दार्शनिक सिद्धांत का सक्रीकरण है।.

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