प्रस्तावना
प्रस्तुत हम लेख में हम भारत के कोणार्क मन्दिर तथा इस मन्दिर से जुड़े रहस्यों,हिन्दू धर्म में इस मंदिर के महत्व और मन्दिर की वस्तु कला का बारे में बात करेंगे।.1984 में मंदिर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर को सूची में शामिल किया।.मंदिर ऋग्वैदिक काल तथा पूरा पाषाण काल का अच्छा उदाहरण है।.मगर वर्तमान समय ये यह खंडहर बनाता जा रहा है। हमारा प्रयास रहेगा की सरकार का एवं आम जन समूह का ध्यान हम केंद्रित कर सके ताकि सभी के सहयोग और समर्थन से मन्दिर को पुनः स्थापित अथवा जाग्रत किया जाए सके।.
मंदिर का इतिहास
13 वी शताब्दी के समयकाल में मन्दिर का निर्माण गंगावंश के राजा नरसिम्हा देव प्रथम द्वारा कराया गया। जो की हिंदू देवता भगवान सूर्य को समर्पित है।.वर्तमान समय यह स्थान उड़ीसा राज्य के पूरी जिले से 35 किलो मीटर उत्तर पूर्व के क्षेत्र में अवस्थित है।. 5 जनवरी 2018 में दस रुपए के नोट पर इस मंदिर के चित्र वाला नोट रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा पेश किया गया।.मंदिर के निर्माण काल के समय 1253 से 1260 के मध्य का अनुमानित किया गया है। 1278 में मिले ताम्रपत्र पत्र से पता चलता है की राजा नरसिम्हा देव प्रथम ने 1282 तक शासन किया।.अतः अपने समय काल के दौरान इस मंदिर का निर्माण करवाया।.
मन्दिर में वास्तु दोष का होना
कुछ इतिहासकारों एवं वास्तुकारों के अनुसार मंदिर में वास्तुदोष थे जिसके परिणाम के चलते 800 वर्षो के ही अंदर क्षीण हो गया। बताया जाता है की मंदिर का निर्माण वास्तुकला के नियमों के विरुद्ध हुआ था।.
1.मंदिर का निर्माण रथ की आकृति के होने के कारण ईशान (यानी उत्तर और पूर्व के मध्य को दिशा)Northeast एवं आग्नेय कोण (यानी दक्षिण और पूर्व के मध्य की दिशा) खंडित हो गई।.
2.पूर्व से देखने से लगता है की ईशान और आग्नेय कोण को कटकर यह वायव्य कोण(northwest angel) नैऋतर्य this कोण southweast angel और बढ़ गया है।.
3.प्रधाममंदिर के पूर्व द्वार के सामने नृत्यशाला है,जिससे पूर्वी द्वार अवरोधित होता है जिसके परिणाम स्वरूप पूर्वी द्वार अनुपयोगी सिद्ध होता है।.
4.नैऋतर्य कोण में छाया देवी के मंदिर की नींव प्रधानलय से अपेक्षाकृत नीची है। जिसके कारण नैऋतर्य भाग में माया देवी का मंदिर और नीचे ही जाता है।.
5.अज्ञात क्षेत्र में विशाल कुंआ है। 6.दक्षिण और पूर्वी दिशाओं के तरफ विशाल द्वार है जिसके कारण मंदिर की वैभव ख्याति क्षीण हो गईं है।.
लेकिन ऐसा कुछ भी नही है मंदिर में किसी भी प्रकार का वास्तु दोष नही है अगर ऐसा होता तो यह यूनेस्को के विश्व धरोहर की श्रेणी में नहीं आता।. यह प्रमाण है की कोणार्क सूर्य मंदिर पूरे विश्व में एक विशेष वास्तु कला पद्धति से निर्मित किया गया मन्दिर है। ये संभव हो सकता है की मुस्लिम शासकों द्वारा इसे अधिक से अधिक क्षति पहुंचाने के प्रयास से यह मंदिर धीरे धीरे ध्वस्त हो रहा है।.हमारा मानना है की अगर वे वास्तु के इतने ही परिपक्व ज्ञाता है मंदिर को पुनः निर्मित कराने में अपना योगदान दें।.जोकि एक निश्चित क्षेत्र के वास्तुकारों की क्षमता के परे की बात होगी। अतः इस मंदिर के पुनः निर्माण के लिए कई देशों के वास्तुकारों को मिलाकर काम करना होगा। जिसमे
सर्वाधिक योगदान भारत के होने पर ही इस मंदिर का निर्माण हो सकता है।.
कोणार्क मन्दिर की बनावट
मंदिर का निर्माण लाल बलुआ पत्थर और काले ग्रेनाइट के इस्तेमाल से हुआ है।.मंदिर की निर्माण कला कलिंग शैली की है। यह मन्दिर भगवान सूर्य देव को समर्पित हैं।. मंदिर को सूर्य देव को पूरे दिन का भ्रमण रूप देते हुए बनाया गया है। मंदिर को एक रथ के समान दिखाया गया है इस 12 पहिंयो के रथ को 7 घोड़ों द्वारा खींचते हुए दिखाया गया हैं। इन 12 पहियों को वर्ष के 12 महीने के रूप में परिभाषित किया गया है। मंदिर को रथ के रूप में दिखाते हुए रथ में सूर्य देव को विराजमान किया गया है। रथ का प्रत्येक पहिया 8 आरो से बना है। जिन्हे दिन के 8 पहर के रूप में परिभाषित किया गया है। आपको बताते चले की प्रत्येक पहर में 3 घंटे होते है। बताते चले कि पुरी के लोग सुर्य देव को बिंरची नारायण कहते है।.मुख्य मंदिर तीन मण्डपो को मिलाकर बनाया गया है। जीनमें दो मण्डप ढह चुके है।.ब्रिटीश शासन काल के दौरान अंग्रेजो ने रेत तथा पत्थर भरवा कर सभी द्वारो को बंद करवा दिया ताकि मंदिर और अधिक क्षतिग्रस्त न हो सके।.मंदिर के द्वार पर दो सिहों को हाथियों पर आक्रमण करते हुए दिखाया गया है,हाथी की प्रतीमा मानव प्रतीमा के ऊपर चढ़ी हुई है। इन प्रतिमाओ कि खास बात यह है कि यह एक ही पत्थर पर नकाशी काट कर बनाई गइ है।.दुसरे प्रवेश द्वार पर एक नट मंदिर है जहां मंदिर की नृतकिया सूर्यदेव को अर्पण करने के लिए नृत्य किया करती हैं। मंदिर जहां तहां फूल-बेल पत्तीयो,ज्यामितीय नमूनो की नकाशी नकाशी की गइ हैं।.इसके साथ शास्त्र शील्प आकृतियां भागवान,देवताओ,गंधर्व, वाहको,प्रेमी युगल,दरबार की छवियों शिकार एंव युध्द के चित्रा को प्रदर्शती किया गया है।.जानकारो के अनुसार बताया जाता है कि मंदिर के बहुत से चित्रो को कामसुत्र से लिया गया है।.मंदिर में सुर्य देव की तीन प्रकार मुर्तीयां विद्मान है। 1.पहली मुर्ती सुर्य देव को उगते हुए दिखाया गया है। यह मुर्ती 8 फुट की है।.2.यह प्रतिमा में सुर्य देव को माध्यावस्था में दिखाया गया है।.यह मुर्ती 9.5 फुट की है। 3.इस मुर्ती में सुर्य देव को प्रौढ़ावस्था में दिखाया गया हैं औऱ यह मुर्ती 3.5 फुट कि हैं।
मंदिर के गर्भ में सुर्य देव की मुर्ती को स्थापित किया गया था जो कि वर्तमान समय में टूट चुका है। मंदिर का प्रांगड 857 फुट लम्बा तथा 540 फुट चौडा है।.कुल मिलाकर मंदिर में आपको 758 मुर्तियां तथा 128 नृत्य कृतियां देखने को मिलती है।.नाट्य शाला अभी बची पडी है।भारत के प्रसिध्द कवि रविन्दर नाथ के टौगोर -कौणार्क मंदिर कि प्रशंसा करते हुए लिखते है कौणार्क मंदिर एक ऐसा स्थल जहां पत्थरों कि भाषा मनुष्यो कि भाषा से श्रेष्ठ है।.1758 तक के समयकाल तक मुस्लिमों का आतंक अभी खतम नही हुआ था जिसके परिणाम स्वरुप मंदिर के पुजारीयो ने सुर्य देव कि मुख्य मुर्ती को कही छिपा दिया था।.कुछ इतिहासकरों का मानना है कि कुछ समय अंतराल के बाद मुर्ती को खोज कर जगन्नाथ मंदिर के प्रांगण में स्थित इन्द्रदेव के मंदिर में रख दिया गया।. वही कुछ इतिहासकारो का मानना है कि मुर्ती को अभी खोजा हि नही गया है।.वहीं कुछ विद्वानो का मानना है कि मुर्ती को खोज के नई दिल्ली में स्थित राष्ट्रीय संग्राहलय में रखा गया हैं।.
मंदिर का चुुम्बकीय पत्थर
बताया जाता है कि मन्दिर के गुंबज पर एक चूम्बकीय पत्थर था जो हमेशा हवा में घुमता रहता था पर कभी गिरता नही था। इस पत्थर को मन्दिर के वास्तु के आधार पर इस प्रकार से अवस्थीत किया गया था कि इसका चुम्बकीय बल पुरे भार को व्यवस्थीत करते हुए,मन्दिर के गर्भ में उपस्थीत सुर्य देव कि मुर्ती को सदैव हवा में रखता था।.इसके साथ मन्दिर के समुद्र तट पर होने के कारण चुम्बकीय प्रभाव के कारण समुद्र में आने वाले तुफान को भी नियंत्रित करता था। मगर आधुनिक समय काल के दौरान इस पत्थर चुम्कत्व बल के कारण पानी मे चलने वाले नाविको के कम्पास सही से काम करना बंद कर देते थे। जिसके कारण वे भटक कर इस मंदिर कि तरफ चले आते थे।.अतः कारण का पता चलने पर उन नाविको ने इस पत्थर को इसके स्थान हटा दिया ,जिसे इतिहासकार मंन्दिर के गिरने के कारण मानते है। क्योकि मन्दिर के वास्तु के लिए इस पत्थर का मन्दिर के गुंम्बज पर होना आवश्यक था।.
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