9b45ec62875741f6af1713a0dcce3009 Indian History: reveal the Past: नायंकर प्रणाली

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मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

नायंकर प्रणाली

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नायंकर प्रणाली के विदेशी दर्शन

इस प्रणाली की शुरुआत विदेशी मुल्क यूरोप से हुई थी।पांचवीं शताब्दी के लगभग पूर्वी यूरोप में रोमन साम्राज्य का शासन था। और पश्चिम में यूरोप की असभ्य फ्रैंक लोम्बार्ड और गॉथ नामक जाति रहती थी। रोमन साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण भी यही दो जातियां थीं।इन लुटेरी जातियों ने समाज और सरकार को सर्वथा एक नया रूप दिया।.

1.सिज्विक के अनुसार-(इनमें से एक सामंतवाद को चार अलग-अलग प्रवृत्तियों का परिणाम माना जाता है।)पहली प्रवृत्ति एक मनुष्य के साथ, जो उच्चस्तर का था।अपनी सुरक्षा के लिए शक्तिशाली व्यक्तियों के साथ संबंध बनाए गए। जो की सामाजिक न होकर व्यक्तिगत थे।.दूसरी प्रवृत्ति:संरक्षक और अश्रीत एक दूसरे के साथ व्यक्तिगत संबंध के अनुपात में बंधे हुए थे। संरक्षक अपने जुड़ाव की रक्षा करता था। और अनुपातिक रूप से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण उसका बल बढ़ गया।.मनुष्य का अधिकार,राजनैतिक स्थान,तथा सामाजिक स्थिति के अनुरूप होने की प्रवृत्ति थी। 

इस प्रवृत्ति के तहत सामंती के शास्त्रीय संबंध और सामाजिक स्थिति इस बात पर निर्भर करती थी कि वह कितनी भूमि का स्वामी है।.तीसरी प्रवृति:बड़े बड़े सामंत अपने प्रदेशों की राजनीतिक सत्ता का प्रयोग करने लगे। यह परिवर्तन क्रमश-बढ़ता गया। उन्हें यह अधिकार शासक से नहीं मिला था। केंद्रीय सत्ता की दुर्बलता के कारण उनकी शक्तियों का विस्तार हुआ जैसे जैसी शक्तियां बढ़ी,उन्होंने अपने प्रदेश की सुव्यवस्था के लिए अपने अधिकारों का विस्तार किया और उन पर शासन करना प्रारम्भ किया।.चौथी प्रवृति-सामाजिक वर्ग की प्रवृत्ति। राजा या सामंती पर संबद्ध दो प्रकार के व्यक्ति होते थे। पहले वे जो सैनिक सेवाओं के बदले राजा या सामंत से जुड़े थे,दूसरे वे जो उनकी भूमि पर कृषि और अन्य कार्य करते थे।.


2.श्री एच एस देवी के अनुसार-वे सामंतवाद की मूल प्रवृत्ति का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं कि युद्ध सामंत व्यवस्था का प्रमुख सिद्धांत था,भाई-भाई के खिलाफ और पिता-बेटे के खिलाफ लड़ने को अपने मालिक की तरफ से तैयार रहता था। निम्न वर्ग की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। यांहि से दास प्रथा का भी प्रारंभ होता है।

3.श्री लुकस के अनुसार-राजा और सामंत की अनुबंधता सिद्ध होती है। इसके आधार पर पूर्वनिर्धारित-प्रदान किया गया था। सामंत राजा को सैनिक सहायता प्रदान करता था राजा को महत्वपूर्ण परामर्श देने वाला राजा का मंत्र प्राप्त करने का अधिकारी होता था।.

4.बेवस्टर महाजन के अनुसार-सामंतवाद एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था थी जो राजा और सामंत के भूमि से संबंधित पारस्परिक संबंधों पर आधारित थी। जिसमे प्राप्त करता द्वारा सेवा और सम्मान,अधिकार,सहयोग,शादी के क्रिया कलाप प्रमुख थे।.

5.चैंबर्स इंसाक्लोपिडिया के अनुसार-वे सामंत वाद पे स्वामी भक्ति और आज्ञा पालन पर बल देते हुए लिखते है की "सामंतवाद शब्द यद्धपि समाज व्यवस्था का एक प्रकार है तथा मुख्य रूप से उन व्यक्तिगत संबंधों की व्यवस्था करता है जो जमीन के अधिकार और व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार के आधार पर,एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति के प्रति अधीनता प्रकट करता है। तथापि यह व्यक्तिगत संबंधों और नियमों की उस विशिष्ठ पद्धति की ओर संकेत करता है जिसमे एक ओर सुरक्षा तथा निर्वाह तथा दूसरी ओर सेवा तथा आज्ञा पालन हैं।

भारत में सामंतवाद प्राचीन काल के अनुसार

भारत में जमीदारी सर्वाधिक क्षेत्रिया राजपूतों की रही है। भारत की प्राचीन विचार धारा के अनुसार भूमि सार्वजनिक सम्पत्ति थी। मनुस्मृति के पृष्ठ 8,237-239 के अनुसार भू स्वामित्व का प्रथम अधिकार उसे है जिसने जंगलों को काट कर उसे साफ किया उसे जोता। अतः प्राचीन भारत में भूमि का क्रय-विक्रय संभव नहीं था।.इसका सत्यापन विद्वान जार्ज कैंपबेल पर बोडेन पावेल कर चुके हैं।.जॉर्ज कैंपबेल कहते है कि भूमि जोतनें का अधिकार एक अधिकार मात्र था हिंदू व्यवस्था के अनुसार उसे भूमि का स्वामी नही माना जा सकता।.

आधुनिक अनुसंधान के द्वारा यह ज्ञात हुआ है की प्राचीन भारत में सामंत,उपारिक,भोगिक,प्रतिहार,तथा दंडनायक विद्यमान थे।.ये न्यूनाधिक सामंत प्रथा के अनुकूल थे।.याज्ञवाल्क्या के मत अनुसार भूमि व्यवस्था के अंतर्गत चार वर्ग थे i महिपत ii क्षेत्र स्वामी iii कृषक iv शिकमी आदि। यह हमे यज्ञवाल्क्य भाग दो के158 वे श्लोक से ज्ञात होता है।वृहस्पति ने क्षेत्र स्वामी के स्थान पर केवल स्वामी शब्द का प्रयोग किया, लेकिन शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए कहा की (स्वामी,राजा और खेतिहर के मध्य का व्यक्ति है।.)

i.मध्य काल के अनुसार-यवन शासक भूमिकर गांव के मुखिया द्वारा ही वसूल करते थे और कभी कभी स्थानीय सरदार और राजाओं द्वारा भी,जो अपना स्तर गांव के मुखिया से ऊंचा होने का दावा किया करते थे।(इन राजाओं के दावे में राज्य और कृषक के बीच में एक मध्यवर्ती वर्ग का जन्म हुआ। परंतु सामंतवाद पद अवरोध स्थाई रखा गया था क्युकी राज्य सर्वदा इन राजाओं को कर्मचारी ही मानते थे।राजा वंशानुगत होने पर या दूसरी पीढ़ी आने पर राजा के उत्तराधिकारी को उसकी सनद प्राप्त करने के लिए प्रार्थना पत्र देना पड़ता था और सनद की प्राप्ति के बाद ही वह राजा होता था। (अतः राज्य को उनको पद देने व वापिस लेने का पूरा अधिकार सदैव प्राप्त था।.


ii.आईने अकबरी के अनुसार-कृषक तथा राज्य के बीच किसी अन्य मध्यवर्ती वर्ग को मान्यता नहीं दी गई थी।अतः तथाकथित राजा और जमीदार सैद्धांतिक रूप से और वास्तविक रूप से केवल कर वसूल करने वाले कर्मचारी ही थे।यवन शासकों ने भूमि स्वामित्व अधिकार का कभी दावा नहीं किया। इस बात का प्रमाण यह भी है कि औरंगजेब ने हुंडी,पालम तथा अन्य स्थानों पर कृषकों से किले बनवाने के लिए भूमि खरीदी थी।.उसी प्रकार अकबर ने अकबराबाद और इलाहबाद में किले बनवाने के लिए कृषक से भूमि खरीदी थी। ऐसा ही शाहजंहा ने भी किया था। उनके शासन काल में कृषकों को उच्चतम मान्यता दी गई थी। कृषक अपना कर राजा तथा गांव के मुखिया द्वारा दिया करते थे। ब्रिटिश काल के दौरान जमीदारी प्रथा वा उसका अंत।सन 1707 ईस्वी में ओरंगजेब की मृत्यु के पश्चात कृषकों के अधिकारों का लोप धीरे-धीरे प्रारंभ हुआ। जबकि केंद्रीय सत्ता श्थिल पड़ने लगी।.राज्य के कर्मचारी प्रजा की जान माल की रक्षा करने में असमर्थ होने लगे।.

अतः परिणाम स्वरूप ग्रामवासी अपनी रक्षा के लिए शक्तिशाली कर्मचारी,एवं राजा या मुखिया का सहारा लेने लगे।.इन लोगो ने स्वभावतः शरणार्थी कृषकों के भूमिआधिकारो पर आक्रमण किया। परन्तु इस समय काल में भी कृषकों के भूमिआधिकारों का पूर्ण समर्पण नहीं हुआ था।.भारत में अंग्रेजो के आगमन काल से ही जमीदारी प्रथा का उदय होने लगा। अंग्रेज शासकों का विश्वास था कि वे भूमि के स्वामी है,और कृषक उनकी प्रजा है। इसलिए उन्होंने स्थाई तथा अस्थाई बंदोबस्त बड़े कृषकों तथा राजाओं और जमीदारो के लिए किए। 

राजनीतिक ओचित्य से प्रभावित होकर अंग्रेजो ने एक-एक परगना एक-एक एजरेदार को पांच-पांच वर्ष के लिए पट्टे पर दिया और इस प्रकार अंग्रेसरकार ने जमीदारी प्रथा को मान्यता प्रदान की।.प्रारंभ में अंग्रेजो का सिद्धांत कृषकों को उनके अधिकारों से वंचित करना नहीं था। 1786 में वारेन हेस्टिंग्स के बाद लार्ड कार्नवालिस गवर्नर जनरल बना।.10 वर्षीय बंदोबस्ती की व्यवस्था लार्ड कार्नवालिस ने 1790 में उड़ीसा,बंगाल,बिहार में सबसे पहले की।.लगभग 2 वर्षो बाद इस दास वर्षीय योजना को स्थाई बंदोबस्ती बना देने की अनुमति दे दी।.जमीदारी प्रथा का सर्वप्रथम चलन (मद्रास )में अंग्रेजो द्वारा किया गया।.नियमानुसार कृषि भूमि को बांटकर बेचा जाता था। इसकी शुरुआत अवध क्षेत्र से स्थाई बंदोबस्ती कृषकों से ही की गई लेकिन कालांतर में राजनीतिक कारणों से यह बंदोबस्त जमीदारो से किया गया।.

महान इतिहासकार सर विसेंट ए स्मिथ के अनुसार-

अलीगढ़ की बंदोबस्ती रिपोर्ट में यह बात स्पष्ट करते हुए लिखा की प्रचलित भूमि अधिकारी की अपेक्षा करते हुए केवल उपयोगिता को लक्ष्य में रख कर बंदो बस्ती एजरदारो से की गई। यह अन्याय पूर्ण कर राशि एकत्र करने का सबसे सरल उपाय हैं तथा राजनीतिक दृष्टिकोण से भी उपयोगी है। नतीजा जन प्रशासन को संपन्न और अमीर वर्ग का सहयोग मिलता रहेगा।.अंग्रेजो के पतन और जमीदारी प्रथा के अस्त होने के मुख्य कारक-स्थाई बंदों बस्ती में कृषकों के हितों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। जिसके कारण उनका दुःख,अपमान,दरिद्रता बढ़ती गई।.अंग्रेजो को किसानों की दयनीय स्थिति का ज्ञान था मगर उनका मानना था की जमीदारो के साथ उदारता का व्यवहार दिखाने पर जब वह संपन्न एवं संतुष्ट रहेंगे तो वे अपने कृषकों या असामियो को नहीं सताएंगे जिसके फलस्वरूप वह खुशहाल रहेंगे। मगर यह उनकी भूल थी जमीदारो ने हमेशा ही अपने कर्तव्यों के साथ विश्वास घात किया।.

अंग्रेजो द्वारा किसानों की दशा सुधारने में लिए सर्वप्रथम कदम सन 1859 में उठाया गया। और यह प्रक्रिया 1929 तक जारी रही। इन नियमों के तहत लगान बढ़ने के अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए।. उच्च श्रेणी के कृषकों को इस से लाभ भी हुआ। मगर निम्न श्रेणी के कृषकों को स्थिति ज्यों कि त्यो बनी रही।.इस नए नियमानुसार जमीदारो को कर वसूलने में छूट दी गई।.जिससे वह राज्य को राजस्व कर सही समय पर दे सके।.मगर किसानों का शोषण जारी रहा।.सन 1930 से 1944 ईस्वी तक दूसरा चरण प्रारंभ होता है। इस समय काल में सारे देश में किसान आंदोलन होने लगे। इन अन्दोलन का बीज एक किसान सभा ने बोया था। जो भारतीय कांग्रेस की इलाहाबाद बैठक में तारीख 11 फरवरी सन् 1918 ईस्वी को हुई थीं।.जिसके तहत ग्रामीण जनता में काफी जागृति पैदा हुईं। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने यू पी कांग्रेस कमेटी की 28 अक्तूबर 1928 में घोषणा की।.अतः किसान आंदोलनों से प्रभावित हो कर नए अधिनियम बनाये गए जिससे कृषकों के हित की रक्षा हो सके।.
1.मलाबार टेनिस एक्ट 1935 2.असम टेनिस एक्ट 1935

3.गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के अंतर्गत प्रविंशल आटोनोमी का उद्घाटन हुआ।.
अतः प्रांतीय सरकारी ने भी भूमि सुधार अधिनियम की व्यवस्था की।
4.
यू पी टेनिस एक्ट 1939 के तहत कृषकों को मौरूसी अधिकार दिए गए।.

5.बंबई टेनिस एक्ट 1939 के तहत कृषकों के हित में जमीदारो के कतिपय अधिकार छीन लिए गए।.इन सभी भूमि सुधार अधिनियमों के बनने के बावजूद भी जमीदारी प्रथा को बुराइयां विद्दमान रही।.जबकि70%तक जमीदारों के अधिकार छीन लिए गए थे।.इंडियन नेशनल कांग्रेस ने कई बार इस बात की घोषणा की जमीदारी उन्मूलन को कांग्रेस के कार्यक्रम में प्रमुख स्थान देना चाहिए। सरदार पटेल द्वारा संचालित किसान कांफ्रेंस 27,28 अप्रैल सन 1935 ईस्वी में इलाहाबाद में हुई थी।.इस में जमीदारी उन्मूलन के प्रस्ताव को पास करके इस ओर एक प्रमुख कदम उठाया।.मगर सन 1939 ईस्वी में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भूमि सुधार का सारा कार्यक्रम रूक गया।.विश्व युद्ध के खतम होने के पश्चात नायंकर प्रणाली का आखिरी समय शुरू हो गया।.और यह 1955 के लगभग तक चला।.युद्ध समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने 1945 ईस्वी में गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत प्रांतीय सदनो में चुनाव कराने का फैसला लिया।.कांग्रेस सरकार ने दिसंबर 1945 में चुनाव घोषणा पत्र निकाला और इस घोषणा में जमीदारी उन्मूलन के बारे में स्पष्टतया कहा गया।

सन 1946 में चुनाव में सफलता के परिणाम स्वरूप जब हर प्रांत में कांग्रेस मंत्रिमंडल बने तो चुनाव प्रतिज्ञा के अनुसार जमीदारी प्रथा को समाप्त करने के लिए विधेयक पारित किया जो की 1055 0 तक अधिनियम के रूप में स्थापित हो गया। जिसके चलते संपूर्ण देश में सामंतवाद का अंत हुआ।.(सामंतवाद) जमीदारी प्रथा और नायंकर प्रणाली का ही रूप है। इन नियमों के अनुसार सारी ज़मीन शासकों के स्वामित्व में रहती थी।2.सेनापति अपने शासक तक भूमि कर पहुंचाया करता था और सेनापति उसके नियंत्रण में कार्य करता था।सेनापति या सामंतो द्वारा इस भूमि को क्षेत्रिय जमीदार या भूमि को नायकों में वितरित किया गया था। नोट-इन जमीदारों ने विजय नगर के शासकों की सर्वोच्चता स्वीकार की।जमीदार शासकों के संरक्षक के रूप में कार्य करते थे।जमीदारों ने काश्तकारों को खेती के लिए जमीन दी। बदले में जमीदार काश्तकार किसान नियमित रूप से भूमि कर देते थे।कर की राशि बहुत अधिक हुआ करती थी।.

जमीदार पूरे कर का दसवां हिस्सा जमीन के रूप में जमा हुआ करता था। किसानों से जबरन तरीके से कर की वसूली की जाती थी।.जमीदार कर का आधा हिस्सा केंद्र सरकार या अन्य विजय नगर के शासक को देते थे।.और आधा हिस्सा अपने सैन्य,प्रशासन और स्वयं पर खर्च करते थे।सेना की प्रशासन व्यवस्था जमीदारो या सेना नायक के अधीन होती थी। सेना में पैदल सेना,घुड़सवार,हाथी सेना के पारंपरिक विभाग शामिल थे।.जमीदार को शासक के दरबार में दो प्रतिनिधि प्रस्ताव के अधिकार प्राप्त होते थे। राजधानी में प्रथम प्रतिनिधि सेना का संचालन करता था। दूसरा प्रतिनिधि जमीदार की क्षेत्रीय सेना का संचालन करता था। विजय नगर साम्राज्य में लगभग 200 से अधिक सेना नायक थे।.जमीदार या नायक को राज्यपाल से अधिक अधिकार प्राप्त थे। इसके चलते यह स्वतंत्र रूप से काम करते थें।.
विजय नगर शिलाफलक के अनुसार प्रमुख सेना नायक के नाम इस प्रकार है।
  1. थिरु कोवल्लुर के चिन्नप्पा।.
  2. थिरु कोवलूर के पोनेरिक।
  3. मिरून्थियाचे के अरियादेव नायक।.
  4. तंजौर थि केप्पा नायक|
  5. त्रिचि के परहप्पा।.
  6. मदूरै के वैरप्प्या नायक।.
  7. पुटु कोट्टई के राघव नायक।
  8. रामनाद के चिक्किमा नायक आदि।

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