बुरे कर्मो से बचने का सहज उपाय
गहराई से अपने भीतर देखना ही विपशयना का मूल अर्थ है वैसे ये पाली भाषा का शब्द है। यह भारत की प्राचीन ध्यान विधि है इसके मध्यम से मनुष्य,भय,मोह,लालच,विकारों, दैनिक जीवन के तनावों से मुक्त हो जाता है। वह जीवन में आने वाली समस्याओं का सफलता पूर्वक हल खोजने में सक्षम हो जाता है। अपने बुरे वक्त में सयंम बरतते हुए समस्या का समाधान खोजने की क्षमता आपके अंदर विकसित होने लगती है। क्युकी वास्त्तव में परिस्थिति उतनी कठिन नहीं होती जितना हम उसे दर के नाते बना देते है। .हमे जरूरत है उस दूर दृष्टि की जिसके चलते हम अपनी समस्या को कई भागों में विभाजित कर गहराई से उसका अध्यन करते है । और फिर हम अपनी समस्या के मुख्य कारण को जानकर,आसानी से उसका हल निकल सकते है।.ऊपरी तौर पर मासूम होने वाला उसका स्वरूप आभासी सत्य जैसा है।इसका पता चलते ही साधक आभासी सत्य के कारण से पैदा होने वाली भावनाओ से बाहर आने लगता है,और इसके प्रभाव से शरीर,मन,वाणी और कर्म सुधारने लगता है। जैसे - जैसे साधक में सुधार आने लगता है,वैसे वैसे साधक मानसिक तनावों से मुक्त होने लगता है। और अपने भीतर शांति का अनुभव करने लगता है।.जिसके परिणामस्वरूप चित से संबंधित कई रोग समाप्त होने लगते हैविपश्यना की खोज गौतम बुद्ध ने 2500 वर्षो पूर्व की थी। बर्मा में विपश्यना को पीढ़ी दर पीढ़ी संभाल कर रखने वाले सयाजी ऊब खीन ने 1968 में व्यवसायी सत्यनारायण गोयनका को विपश्यना को भारत ले जाने के लिए अधिकृत किया।यह एक मानसिक व्यायाम है
शास्त्रों के अनुसार ध्यान लगाना तन और मन दोनों के लिए उपयोगी है। यह स्वयं को जाने के आपकी मदत करता है। (विपश्यना ध्यान का ही रूप है अंतर बस इतना है कि अपने इष्ट या भगवन को याद न करते हुए,प्राकृतिक क्रिया कलापों का शांत मन से दर्शन करना है।.इस भाग दौड़ भरी जिंदगी में तनाव किसी न किसी रूप में हमे घेरे हुए है। जिससे छुटकारा पाने का विपश्यना एक बहुत ही सरल उपाय है। यह एक प्रकार का मेडिटेशन ही है।आज भारत में लगभग 170 विपश्यना मेडिटेशन सेंटर है। जहां 10,20,30,45,60 दिनों तक मेडिटेशन कोर्स कराए जाते है। आइए जानते है इससे सेहत के फायदे। 1.अनुभव कर्ताओं ने अपने बयान में बताया कि इसको लगातार करने से चेहरे की रंगत और ब्लड सरक्युलशन को बढ़ाने में मदत मिलती है। ये तो सब जानते है कि जब आप तनाव मुक्त रहेंगे तो चेहरा हमेशा चमकता रहेगा।.
2.आत्म विश्वास बढ़ता है,
विपश्यना का अभ्यास मन को शांत रखता है। इससे धैर्य और आत्मविश्वास में बढ़ोतरी होती है उतावलापन काम होता है।3.एगाग्रता बढ़ाने में बेहद उपयोगी है खास कर चंचल बच्चो का जिनका पढ़ने में मन नहीं लगता । 8 से 12 साल के बच्चे इसे कर सकते है इनके लिए यह कोर्स 1,3 दिन तक का होता है। विपश्यना क कोई गलत परिणाम हो ही नही सकता यह हमे प्राकृति और स्वयं से जुड़ने में मदत करता है। बुद्ध कहते है मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना,न मानना आत्मा को मानना या ना मानना आवश्यक नहीं है। बुद्ध के इन्ही विचारो के कारण बौद्ध धर्म अकेला धर्म रहा है जिसमें मान्यता और पूर्व ग्राह की आवश्यकता न के बराबर है तो आओ और देख लो,मानाने की जरूरत नहीं।देखो फिर मान लो। और जिसने देख लिया मानना थोड़े ही पड़ता है , मान ही लेता है।"बुद्ध की यही देखने-दिखाने की प्रक्रिया ही विपश्यना थी।अपनी आती- जाती श्वास के प्रति साक्षिभाव ही जीवन है । श्वास तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह से जुड़ी हुई है। हमारी सांसे नदी पर बने बांध के समान है। नदी के इस पार हमारा शरीर अथवा तन है, जबकि नदी के उस पार परम सत्य है। हमे बस आवश्यकता है अपनी सांसों पर अपना ध्यान केंद्रित करने की। और इसके चरम पर हम खुद को अपने तन से अलग महसूस करेंगे।
भगवान बुद्ध आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित नहीं करते मगर श्वास को देखने की प्रक्रिया आपको आत्मा के अस्तित्व को मानने पर मजबूर करती है। क्योंकि इसके परिणाम स्वरूप हमारा तन जिसके हम करीब है वो दूर हो जायेगा,बीच में हमारी सांसे होंगी और हम खुद को स्वयं के करीब पाएंगे। यानी अपने अस्तित्व को जान पाएंगे।. अगर तुमने श्वास को देख लिया तो तुम शरीर से अनिवार्य रूप से छूट गए । शरीर से छूट गए,फिर श्वासो से छूटो गे,आत्मा के दर्शन के लिए श्वास दर्शन जरूरी है ये हमारे तन के साथ साथ हमारे विचारों से भी जुड़ी हुई है,यानी विचार बदलने पर श्वास बदल जाती है।
भगवान बुद्ध आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित नहीं करते मगर श्वास को देखने की प्रक्रिया आपको आत्मा के अस्तित्व को मानने पर मजबूर करती है। क्योंकि इसके परिणाम स्वरूप हमारा तन जिसके हम करीब है वो दूर हो जायेगा,बीच में हमारी सांसे होंगी और हम खुद को स्वयं के करीब पाएंगे। यानी अपने अस्तित्व को जान पाएंगे।. अगर तुमने श्वास को देख लिया तो तुम शरीर से अनिवार्य रूप से छूट गए । शरीर से छूट गए,फिर श्वासो से छूटो गे,आत्मा के दर्शन के लिए श्वास दर्शन जरूरी है ये हमारे तन के साथ साथ हमारे विचारों से भी जुड़ी हुई है,यानी विचार बदलने पर श्वास बदल जाती है।
उसी प्रकार श्वास बदलने पर विचार बदल जाते है।
उदाहरण
1.यानी किसी पर गुस्से का विचार,हमारी श्वास को तेज कर देता है।
2.दुःख या दुःख में शामिल होने पर इसकी प्रक्रिया बदल जाती है।
3.डर के भागने पर और शांति से भागने पर अलग अलग रूप में श्वास चलती है।
4.बहुत धीमे चलने पर सांसों का प्रवाह एक दम से बदल जाता है। कभी कभी घबराहट भी होने लगती है।
5.बुखार में पांचवे ढंग से चलती है।
6.तनाव से भरा होने पर छठे ढंग से चलती है।
7.चित शांत होने पर या मौन होने पर दूसरे ढंग से चलती है।
इस प्रकार भावो को बदलो श्वास बदल जाती है,और श्वास को बदलो भाव बदल जाते है।जरा कोशिश करना क्रोध आए मगर सांस को डोलने न देना,श्वास को स्थिर रखना ,शांत रखना ,श्वास का संगीत अखंड रखना। श्वास का छंद न टूटे। फिर तुम क्रोध न कर पाओगे ।करना चाहो तब भी क्रोध न आयेगा ।क्रोध उठेगा भी तो गिर जायेगा ।क्रोध होने के लिए जरूरी है श्वास आंदोलित हो जाए। सांसों की डगमगाहट से भीतर का केंद्र गड़बड़ होने लगता है। हमे इसी पर काबू पाना है। ऐसा कर पाने पर हम क्रोध में भी शांत दिखेंगे। क्युकी हमने इस पर काबू पा लिया है। शरीर पर आए क्रोध का कोई अर्थ नहीं जब तक की वो विचारो से व्यक्त न हो।.प्राकृतिक का खूबसूरत नजारा उगता सूरज देखने के लिए किसी नदी के किनारे बैठ जाइए।.(इस अलौकिक दृश्य का विचार ही आपके मन को शांत कर देगा) अब उगता लाल सूर्य,नदी का शांत बहता पानी आपको आनंदित करेगा।. दुबारा अपने आप में आने पर या होश में आने पर आप देखोगे को आपकी श्वास बड़ी शांत है।.तो इस प्रकार विपश्यना का मूल अर्थ ही श्वास का ख्याल रखना है। इसी कारण से विपश्यना प्राणाव्याम से अलग है। प्राणाव्याम में श्वास को बदलने की चेष्ठा की जाती है।मगर विपश्यना में श्वास जैसी भी है तुम्हे बस श्वास पर विचार कर उसका एहसास करना है। फिर चाहे वो कैसी भी चल रही हो शांत, तेजी से ,ऊबड़ खाबड़,अच्छी बुरी बस विचार करना है। बाकी सब अपने आप होता जायेगा।
बुद्ध कहते है की यदि तुम अपनी मर्जी से श्वास को कंट्रोल करोगे तो मर्जी से कभी भी महत्व फल नही मिलता।
क्युकी चेष्ठा तुम्हारी है,तुम ही छोटे हो तो तुम्हारी चेष्ठा तुमसे बड़ी नही हो सकती है। तुम्हारे हाथ छोटे है तुम्हारे हाथ की जहां-जहां छाप होगी,वहां-वहां छोटापन होगा । इसलिए बुद्ध ने ये नही कभी काहा की तुम श्वास को बदलो। वे कहते हैं तुम बैठ जाओ श्वास तो चल ही रही है, हमे बस एक शांत जगह पर बैठ कर सांसों के आवागमन को देखना है। जैसे सांसों ने तन में प्रवेश किया फेफड़ों का फुलाव महसूस करो, सांस के बाहर जाने पर नाक पर इसके स्पर्श को महसूस करो।क्षण भर सब रुक गया अनुभव करो उस रुके हुए पल का, फिर श्वास बाहर चली फेफड़े सिकुड़े अनुभव करो उनके सिकुड़ने को। फिर नासपुटो से श्वास बाहर गई फिर क्षण भर सब ठहर गया। फिर नई श्वास आई यह पड़ाव है इसे देखते रहो ।तुम्हे प्रतीत होगा मैं मन नहीं हूं। आगे बढ़ते हुए आपको एहसास होता है कि यही परम सुख है इस प्रकार तुम श्वास से या इसकी प्रक्रिया से भी आगे बढ़ जाते हो। अपने अस्तित्व को जानने के बाद आपको एहसास होता है कि सारी समस्या का हल यही है क्युकी अंत में सबको यहीं आना है। तो अपनी खुशियों को सब में साझा करते हुए और सब को खुशी देते हुए जीवन का आनंद ले।.अब मौन हो जाओगे स्वयं ही। अब आनंद की अनुभूति होगी जिसे तुम किसी से न कह पाओगे। विपश्यना करने के लिए किसी प्रकार के आसन की जरूरत नहीं है। इसे कही भी ,कभी भी ,किसी भी स्थान पर किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध कहते है ईश्वर को मानना मत क्युकी शास्त्र कहते हैं मानना तभी जब देख लेना। बुद्ध कहते है इसलिए भी मत मानना की मैं कह रहा हूं मान लिया तो चूक हो जायेगी। दर्शन करना ही मुक्ति दाई।.
नोट
प्रारम्भ से देंखे तो सबसे पहले हम एक मनुष्य ही है। उसके बाद में हम किसी जाति,संप्रदाय य धर्म से जुड़े हुए है। ये हम मनुष्यो द्वारा बनाई गई मान्यताएं ही है जो हमे हिंदू,ईसाई,जैन य मुस्लिम बनाती है। मगर एक दर्शन ही है जो हमे परम सुख या परमात्मा के अस्तित्व का बौद्ध करता है। यही आनंद आने योग्य है।.
यह समझने योग्य बात है कि हम है तो धर्म है हम नहीं तो धर्म नही । हमे धर्म से ऊपर उठकर सोचने की क्षमता विकसित करनी है।
1.यानी किसी पर गुस्से का विचार,हमारी श्वास को तेज कर देता है।
2.दुःख या दुःख में शामिल होने पर इसकी प्रक्रिया बदल जाती है।
3.डर के भागने पर और शांति से भागने पर अलग अलग रूप में श्वास चलती है।
4.बहुत धीमे चलने पर सांसों का प्रवाह एक दम से बदल जाता है। कभी कभी घबराहट भी होने लगती है।
5.बुखार में पांचवे ढंग से चलती है।
6.तनाव से भरा होने पर छठे ढंग से चलती है।
7.चित शांत होने पर या मौन होने पर दूसरे ढंग से चलती है।
इस प्रकार भावो को बदलो श्वास बदल जाती है,और श्वास को बदलो भाव बदल जाते है।जरा कोशिश करना क्रोध आए मगर सांस को डोलने न देना,श्वास को स्थिर रखना ,शांत रखना ,श्वास का संगीत अखंड रखना। श्वास का छंद न टूटे। फिर तुम क्रोध न कर पाओगे ।करना चाहो तब भी क्रोध न आयेगा ।क्रोध उठेगा भी तो गिर जायेगा ।क्रोध होने के लिए जरूरी है श्वास आंदोलित हो जाए। सांसों की डगमगाहट से भीतर का केंद्र गड़बड़ होने लगता है। हमे इसी पर काबू पाना है। ऐसा कर पाने पर हम क्रोध में भी शांत दिखेंगे। क्युकी हमने इस पर काबू पा लिया है। शरीर पर आए क्रोध का कोई अर्थ नहीं जब तक की वो विचारो से व्यक्त न हो।.प्राकृतिक का खूबसूरत नजारा उगता सूरज देखने के लिए किसी नदी के किनारे बैठ जाइए।.(इस अलौकिक दृश्य का विचार ही आपके मन को शांत कर देगा) अब उगता लाल सूर्य,नदी का शांत बहता पानी आपको आनंदित करेगा।. दुबारा अपने आप में आने पर या होश में आने पर आप देखोगे को आपकी श्वास बड़ी शांत है।.तो इस प्रकार विपश्यना का मूल अर्थ ही श्वास का ख्याल रखना है। इसी कारण से विपश्यना प्राणाव्याम से अलग है। प्राणाव्याम में श्वास को बदलने की चेष्ठा की जाती है।मगर विपश्यना में श्वास जैसी भी है तुम्हे बस श्वास पर विचार कर उसका एहसास करना है। फिर चाहे वो कैसी भी चल रही हो शांत, तेजी से ,ऊबड़ खाबड़,अच्छी बुरी बस विचार करना है। बाकी सब अपने आप होता जायेगा।
बुद्ध कहते है की यदि तुम अपनी मर्जी से श्वास को कंट्रोल करोगे तो मर्जी से कभी भी महत्व फल नही मिलता।
क्युकी चेष्ठा तुम्हारी है,तुम ही छोटे हो तो तुम्हारी चेष्ठा तुमसे बड़ी नही हो सकती है। तुम्हारे हाथ छोटे है तुम्हारे हाथ की जहां-जहां छाप होगी,वहां-वहां छोटापन होगा । इसलिए बुद्ध ने ये नही कभी काहा की तुम श्वास को बदलो। वे कहते हैं तुम बैठ जाओ श्वास तो चल ही रही है, हमे बस एक शांत जगह पर बैठ कर सांसों के आवागमन को देखना है। जैसे सांसों ने तन में प्रवेश किया फेफड़ों का फुलाव महसूस करो, सांस के बाहर जाने पर नाक पर इसके स्पर्श को महसूस करो।क्षण भर सब रुक गया अनुभव करो उस रुके हुए पल का, फिर श्वास बाहर चली फेफड़े सिकुड़े अनुभव करो उनके सिकुड़ने को। फिर नासपुटो से श्वास बाहर गई फिर क्षण भर सब ठहर गया। फिर नई श्वास आई यह पड़ाव है इसे देखते रहो ।तुम्हे प्रतीत होगा मैं मन नहीं हूं। आगे बढ़ते हुए आपको एहसास होता है कि यही परम सुख है इस प्रकार तुम श्वास से या इसकी प्रक्रिया से भी आगे बढ़ जाते हो। अपने अस्तित्व को जानने के बाद आपको एहसास होता है कि सारी समस्या का हल यही है क्युकी अंत में सबको यहीं आना है। तो अपनी खुशियों को सब में साझा करते हुए और सब को खुशी देते हुए जीवन का आनंद ले।.अब मौन हो जाओगे स्वयं ही। अब आनंद की अनुभूति होगी जिसे तुम किसी से न कह पाओगे। विपश्यना करने के लिए किसी प्रकार के आसन की जरूरत नहीं है। इसे कही भी ,कभी भी ,किसी भी स्थान पर किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध कहते है ईश्वर को मानना मत क्युकी शास्त्र कहते हैं मानना तभी जब देख लेना। बुद्ध कहते है इसलिए भी मत मानना की मैं कह रहा हूं मान लिया तो चूक हो जायेगी। दर्शन करना ही मुक्ति दाई।.
नोट
प्रारम्भ से देंखे तो सबसे पहले हम एक मनुष्य ही है। उसके बाद में हम किसी जाति,संप्रदाय य धर्म से जुड़े हुए है। ये हम मनुष्यो द्वारा बनाई गई मान्यताएं ही है जो हमे हिंदू,ईसाई,जैन य मुस्लिम बनाती है। मगर एक दर्शन ही है जो हमे परम सुख या परमात्मा के अस्तित्व का बौद्ध करता है। यही आनंद आने योग्य है।.
यह समझने योग्य बात है कि हम है तो धर्म है हम नहीं तो धर्म नही । हमे धर्म से ऊपर उठकर सोचने की क्षमता विकसित करनी है।
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